विद्रोही मन
समाज अपनी कहता है अपने ही रचता है जाल ,
उन जालों को काट नये रास्ते तलाशता है मेरा विद्रोह मन,
समाज के नीतिगत नियमों में चाहता है बदलाव विद्रोही मन कुछ सोचता है,
देखता फिर कुछ ऐसा है जो रोकता है,
कर देता है उन परम्पराओं को मानने से इंकार ,
जिसमें सदियों तक नहीं हुआ कुछ बदलाव,
बदलाव ऐसा बदलाव जिसने मेरे मन को विद्रोह ना किया होता है।
मुझे तो छोडिये कम से कम उन परम्पराओं ने किसी का तो भला किया होता है
समाज कहता है मुझे विद्रोही,
परन्तु मुझे समाज ने ही ऐसा किया जो नहीं दे सकता है,
किसी तर्क का प्रतित्तर।
डॉ. साधना श्रीवास्तव
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